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अगर सचिन पायलट ने कांग्रेस का हाथ छोड़ा तो सीधे कितने सीटों का हो सकता है नुकसान?



चुनावी साल में कांग्रेस हाईकमान अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच रिश्ते सुधारने की आखिरी कवायद कर रही है. अगर दोनों गुटों में बात नहीं बनती है तो हाईकमान चुनाव से पहले बड़ा फैसला ले सकता है.


हालांकि, मीटिंग से पहले सुखजिंदर रंधावा ने सब कुछ सही होने की उम्मीद जताई है.

प्रभारी सुखजिंदर रंधावा और प्रदेश अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के साथ ही दोनों नेताओं को दिल्ली बुलाया गया है. दिल्ली में सचिन पायलट और अशोक गहलोत के साथ कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खरगे और राहुल गांधी बातचीत करेंगे. 


पायलट मीटिंग में मुख्यमंत्री बदलने की अपनी पुरानी मांग दोहरा सकते हैं. हाल ही में पायलट ने सरकार के सामने 3 शर्तें रखी थी, जिस पर गहलोत ने तंज कसा था. पायलट-गहलोत का विवाद 30 महीना पुराना है और इसे सुलझाने में कांग्रेस के 2 महासचिवों की कुर्सी चली गई.


ऐसे में सियासी गलियारों में सवाल है कि खरगे के पास अब क्या विकल्प हैं, जिस पर पायलट और गहलोत दोनों मान जाए? अगर खरगे की इस मैराथन मीटिंग में भी बात नहीं बनी तो सचिन पायलट क्या करेंगे?


पायलट की दलीलें मजबूत, संख्याबल में गहलोत भारी
राजस्थान कांग्रेस के विवाद में पायलट की दलीलें मजबूत हैं, जबकि अशोक गहलोत के पास संख्याबल है. गहलोत के पास मजबूत संख्याबल होने की वजह से हाईकमान भी स्वतंत्र फैसला नहीं कर पा रहा है. राहुल गांधी भी दोनों को पार्टी की संपत्ति बताकर विवाद से पल्ला झाड़ चुके हैं.


पायलट गुट की 3 दलीलें...
1. पायलट गुट के करीबियों का कहना है कि कांग्रेस हाईकमान खासकर राहुल गांधी ने चुनावी साल में मुख्यमंत्री बनाने का वादा किया था, जिसे हाईकमान ने अब तक पूरा नहीं किया. पूरा करने के लिए कई प्रयास भी हुए, लेकिन बात नहीं बन पाई.


2. 25 सितंबर 2022 को कांग्रेस हाईकमान ने 'वन लाइन रेज्योलूशन' पास कराने के लिए जयपुर में बैठक आयोजित की थी, लेकिन इस बैठक का गहलोत समर्थक 89 विधायकों ने बहिष्कार कर दिया. इस प्रकरण पर गहलोत ने माफी मांगी पर बागी नेताओं पर कार्रवाई नहीं हुई.

3. सचिन पायलट गुट का कहना है कि वसुंधरा सरकार के जिस भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़कर सरकार में आए, उस पर अशोक गहलोत ने कोई कार्रवाई नहीं की. इससे जनता में कांग्रेस की क्रेडिबलिटी खराब हो रही है. कांग्रेस ने खनन घोटाला, कालीन चोरी जैसे कई आरोप वसुंधरा सरकार में लगाए थे. 


संख्याबल गहलोत के साथ
1. जुलाई 2020 में सचिन पायलट अपने साथ 20 विधायकों को लेकर हरियाणा के मानेसर चले गए. उस वक्त गहलोत सरकार के गिरने की भविष्यवाणी की जा रही थी, लेकिन गहलोत ने मैनेजमेंट कर 102 विधायक जुगाड़ लिए. सरकार बनाने के लिए 101 विधायकों की ही जरूरत पड़ती है.


2. सितंबर 2022 को कांग्रेस ने एक लाइन का प्रस्ताव पास कराने के लिए मल्लिकार्जुन खरगे और अजय माकन को ऑब्जर्वर बनाकर भेजा. यहां मीटिंग से पहले 89 विधायकों ने स्पीकर सीपी जोशी को इस्तीफा भेज दिया. कांग्रेस हाईकमान को बैठक रद्द करनी पड़ी.


सुलह के 3 ऑप्शन पर तीनों में पेंच


पायलट की डिमांड को मान लेना- कांग्रेस हाईकमान के पास पहला फॉर्मूला सचिन पायलट को मुख्यमंत्री बनाने का है. राहुल गांधी के किए वादे को पूरा करते हुए पायलट को चुनावी साल में सीएम कुर्सी देकर विवाद को शांत किया जा सकता है.


हालांकि, सितंबर की घटना के बाद गहलोत से सीएम कुर्सी छिनना आसान नहीं है. गहलोत ने सीएम की कुर्सी को प्रतिष्ठा का सवाल बना लिया है और किसी सूरत में उसे छोड़ना नहीं चाहते हैं. चूंकि अधिकांश विधायक भी गहलोत के साथ खड़े हैं.


ऐसे में हाईकमान सीएम पद पायलट को देने की बात कर राजस्थान में और किरकिरी नहीं करवाना चाहेगा.

पायलट के चेहरे पर चुनाव लड़ना- सचिन पायलट को साथ रखने के लिए हाईकमान के पास दूसरा बड़ा विकल्प पायलट के चेहरे को आगे कर चुनाव लड़ने का हो सकता है. ऐसे स्थिति में हाईकमान सचिन पायलट को यह कहकर साध सकता है कि आने वाला वक्त आपका है. 


हालांकि, इस ऑप्शन में भी कई पेंच हैं. अगर हाईकमान पायलट के नाम को आगे करती है, तो गहलोत के लिए राजनीतिक रास्ता बंद हो जाएगा. गहलोत ऐसी स्थिति कभी नहीं बनने देंगे. दूसरी तरफ पायलट गुट भी सरकार के एंटी इनकंबेंसी से डरा हुआ है. 


गहलोत के चेहरे पर चुनाव लड़ना- कांग्रेस हाईकमान के पास दूसरा ऑप्शन गहलोत के चेहरे पर ही चुनाव लड़ने का है. हालांकि, इसकी संभावनाएं कम है. गहलोत के मुख्यमंत्री रहते पार्टी 2 बार चुनाव हार चुकी है.


इसके अलावा गहलोत को अगर कांग्रेस आगे करती है तो गुर्जर समेत कई जातियों के वोट खिसक जाएंगे. 2018 के चुनाव में बीजेपी की परंपरागत वोट बैंक माने जाने वाले गुर्जर समुदाय ने कांग्रेस के पक्ष में जमकर वोट किया था. राज्य में 30-40 सीटों पर गुर्जर समुदाय का प्रभाव है.

बात नहीं बनी तो क्या पायलट के पास प्लान-B भी है?
सियासी गलियारों में इस बात की सबसे अधिक चर्चा है कि सचिन पायलट की डिमांड अगर पूरी नहीं हुई तो अलग पार्टी बना सकते हैं. हालांकि, पायलट जिस तरह की रणनीति अपना रहे हैं, उससे यह काम तुरंत होने की उम्मीद कम है.


पायलट करीबियों के मुताबिक अभी अशोक गहलोत और वसुंधरा राजे के गठजोड़ का खुलासा किया जाएगा. इनमें रिसर्जेंट राजस्थान घोटाला, खनन घोटाला प्रमुख है. दोनों घोटाले को लेकर अशोक गहलोत ने भी वसुंधरा राजे पर निशाना साधा था.


पायलट ने गहलोत सरकार को 31 मई तक का अल्टीमेटम भी दे रखा है. वहीं पायलट ने यह भी साफ कर दिया है कि वे कांग्रेस पार्टी नहीं छोड़ेंगे और पार्टी में रहकर ही लड़ाई लड़ेंगे.


यानी पायलट का प्लान-B तब शुरू होगा, जब हाईकमान कोई कार्रवाई करे. ऐसे में पायलट गुट को राजस्थान में भावनात्मक तौर पर फायदा मिल सकता है.

दल बनने पर बदलेगा राजस्थान का सियासी गणित
राजस्थान को लेकर बड़ा सवाल यही है कि सचिन पायलट अगर अलग रास्ते पर जाते हैं, तो क्या होगा? कांग्रेस और बीजेपी भी इसी गुणा-गणित में लगी हुई है. पायलट 2013 चुनाव में कांग्रेस को मिली करारी हार के बाद राजस्थान के अध्यक्ष बनाकर दिल्ली से भेजे गए थे. 


इसके बाद पायलट राजस्थान में ही हैं. अध्यक्ष रहते पायलट ने वसुंधरा के गढ़ पूर्वी राजस्थान में मजबूत पकड़ बना लिया. पूर्वी राजस्थान के 8 जिले दौसा, करौली, भरतपुर, टोंक, जयपुर, अलवर, सवाई माधोपुर और धौलपुर में विधानसभा की कुल 58 सीटें हैं. 


2013 के चुनाव में बीजेपी ने यहां शानदार परफॉर्मेंस करते हुए 44 सीटें जीती थी, लेकिन पायलट ने 2018 में सेंध लगाते हुए बीजेपी को 11 पर समेट दिया. कांग्रेस को 2018 में पूर्वी राजस्थान में 44 सीटें मिली थी. पायलट समर्थक अधिकांश विधायक इसी क्षेत्र से आते हैं.


पायलट के अलग पार्टी बनाने से इन 58 सीटों पर बीजेपी वर्सेज पायलट के बीच मुकाबला हो सकता है. इसके अलावा अजमेर, नागौर और बाड़मेर की करीब 20 सीटों पर भी पायलट का दबदबा है. इन इलाकों में भी पायलट कांग्रेस का खेल खराब कर सकते हैं.

गलत फैसले की वजह से 2 राज्यों में जीरो पर सिमट गई कांग्रेस
कांग्रेस हाईकमान के लिए गहलोत-पायलट का विवाद नया नहीं है. 1996 में सोमेन मित्रा-ममता बनर्जी और 2009 में जगन रेड्डी-रोसैया के बीच ऐसा ही विवाद उलझा था. हाईकमान ने दोनों जगहों पर राजस्थान की तरह ही पहले यथास्थिति बनाए रखा और बाद में ऐसा फैसला लिया, जो बाद में गलत साबित हुआ.


बात पहले पश्चिम बंगाल की- 1993 में नरसिम्हा राव की सरकार में मंत्री ममता बनर्जी ने कोलकाता की ब्रिगेड मैदान में एक रैली कर मंत्रिमंडल से इस्तीफा दे दिया. ममता ने कहा कि सीपीएम के अत्याचार के खिलाफ बंगाल में रहकर लड़ाई लड़ूंगी, इसलिए केंद्र की राजनीति नहीं करुंगी.


ममता ने इस्तीफा देते हुए तत्कालीन बंगाल कांग्रेस अध्यक्ष सोमेन मित्रा पर सीपीएम सरकार से मिलीभगत का आरोप लगाया. दोनों के बीच इसके बाद विवाद बढ़ता गया. ममता राज्य की राजनीति में लगातार एक्टिव होते गई और अधिकांश नेताओं को साधने में कामयाब हुई.


इधर, दिल्ली में सोमेन मित्रा का दबदबा अधिक था. मित्रा ने हाईकमान से अपने पक्ष में पैरवी करवा लिया. इसके बाद ममता बनर्जी ने पार्टी छोड़ दी. ममता ने कांग्रेस से नाता तोड़ 1998 में तृणमूल कांग्रेस का गठन कर लिया. उस वक्त बंगाल कांग्रेस के कई नेता उनके साथ आ गए.


सिंगूर और नंदीग्राम की घटना ने ममता बनर्जी को राजनीतिक संजीवनी देने का काम किया. 2011 में ममता बंगाल में सीपीएम सरकार हटाने में सफल रही. ममता के शासन में कांग्रेस का दायरा सिकुड़ता गया. 2021 के चुनाव में कांग्रेस जीरो सीट पर सिमट गई.

अब संयुक्त आंध्र प्रदेश की बात- 2009 में संयुक्त आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री वाई.एस राजशेखर रेड्डी का निधन हो गया. इसके बाद मुख्यमंत्री नाम की अटकलें शुरू हुई. रेड्डी के बेटे जगन ने सीएम कुर्सी पर दावा ठोक दिया, लेकिन कांग्रेस  ने रोसैया को मुख्यमंत्री बना दिया.


रेड्डी इसके बाद यात्रा पर निकल गए. कांग्रेस हाईकमान ने शुरू में मनाने की कवायद की, लेकिन बाद में एक फॉर्मूले के तहत किरण रेड्डी को मुख्यमंत्री बना दिया. 2011 के कडप्पा लोकसभा उपचुनाव में जगन मोहन रेड्डी ने 5 लाख से अधिक वोटों से जीत दर्ज कर ली.


इसके बाद उन्होंने कांग्रेस से अपना रास्ता अलग कर लिया. 2019 के चुनाव में जगन मोहन रेड्डी सरकार बनाने में कामयाब हुए और आंध्र प्रदेश में कांग्रेस जीरो पर सिमट गई. हाल ही में किरण रेड्डी भी बीजेपी में शामिल हो गए.

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